“भगवान ने एक भाषा बोली और वह है संस्कृत। यह दिव्य भाषा है”: स्वामी विवेकानंद
प्राचीन भारत में संस्कृत को देवभाषा का दर्जा प्राप्त था, इसका उपयोग विद्वतजन किया करते थे। लेकिन वर्तमान में एक प्रतिशत से भी कम लोग संस्कृत बोलते है या इसका प्रयोग करते है। संस्कृत का ज्यादातर उपयोग धार्मिक समारोहों के दौरान हिन्दू पुजारियों द्वारा किया जाता है। यहां तक कि सभी निजी स्कूलों में संस्कृत को एक वैकल्पिक विषय के रूप में रखा गया है।
हमारे देश में सरकार द्वारा संस्कृत को भाषा के रूप में बढ़ावा देने के कदम पर एक राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ी हुई है। लेकिन दक्षिणी राज्य कर्नाटक में एक गांव ऐसा भी है जहाँ ऐसी कोई दुविधा या असमंजस की स्थिति नहीं है।
राजधानी बेंगलूरू से करीब 300 किलोमीटर दूर शिमोगा जिले में मत्तूरु एक ऐसा गांव है, जहां आम जीवन में वार्तालाप के लिए सिर्फ संस्कृत का उपयोग होता है। यहां आकर आपको पता चलता है कि देश के सभी केन्द्रीय विद्यालयों में जर्मन के बदले संस्कृत पढ़ाए जाने की नीति बेवजह नहीं है।
इस गांव में छोटा-बड़ा हर दुकानदार भी संस्कृत में बातचीत करता है। क्या यह विस्मयकारी नहीं है? जहाँ भारत में लगभग हर कोई विदेशी भाषा के पाठ्यक्रम के पीछे भाग रहा है, ताकि विदेशों में अच्छा पैसा कमा सके, वहीं मत्तूरु गांव की तस्वीर अलग है। यहां के लोग प्राच्य भाषा संस्कृत की धरोहर अपनी भावी पीढ़ी को सौंप रहे हैं।
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वर्तमान में स्थानीय श्री शारदा विलासा स्कूल में 400 में से 150 विद्यार्थी पहली भाषा के रूप में संस्कृत, दूसरी भाषा के रूप में अंग्रेजी और कन्नड़ या तमिल या अन्य क्षेत्रीय भाषा तीसरी भाषा के रूप में पढ़ते है।
भाषा में उनकी रुचि पूछने पर, बच्चों ने एक अद्भुत प्रतिक्रिया दी। उन्होंने यह तक कहा कि संस्कृत भाषा का ज्ञान उन्हें कन्नड़ समझने में मदद करता है।
इस छोटे से शहर के कई छात्र इंजीनियरिंग और अन्य विषयों का अध्ययन करने के लिए विदेश चले गए। उनका कहना है कि संस्कृत भाषा का ज्ञान अर्जित करना उनके लिए सभी तरह से मददगार रहा। और इसके साथ ही वैदिक गणित का अध्ययन बड़ी मदद साबित हुआ है।
मत्तूरु की सुंदरता और संस्कृत ने जो शक्ति लोगों को दी है, उसे बीबीसी हिंदी ने कैद किया।